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Monday, August 26, 2019

2 साल से कम उम्र के बच्चों को न दें फ्रूट जूस: एक्सपर्ट्स

फ्रूट जूस पीना भला किसे पसंद नहीं। इससे न सिर्फ जरूरी पोषक तत्व शरीर को मिलते हैं बल्कि पानी की कमी भी दूर हो जाती है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि शिशुओं और छोटे बच्चों को फ्रूट जूस बिल्कुल भी नहीं देना चाहिए, फिर चाहे वह फ्रेश हो या फिर पैक्ड जूस। खासकर 2 साल से 18 साल की उम्र के बीच के बच्चों को फ्रूट जूस या फ्रूट ड्रिंक्स पीने से रोकना चाहिए। इसके बजाय बच्चों को मौसमी फल खिलाने चाहिए ताकि उनकी सेहत दुरुस्त रहे। ऐसा एक्सपर्ट्स का कहना है। आइडियन अकेडमी ऑफ पीडियाट्रिक्स के न्यूट्रिशन चैप्टर द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय सलाहकार समूह यानी नैशनल कंसल्टेटिव ग्रुप ने हाल ही में फास्ट ऐंड जंक फूड्स, शुगर स्वीटन्ड बेवरेजेस और एनर्जी ड्रिंक्स को लेकर ताजा दिशानिर्देश जारी किए हैं और उन्हीं में कहा गया है कि शिशुओं व छोटे बच्चों को फ्रूट जूस देने के बजाय मौसमी फल खिलाने चाहिए। इस समूह ने सलाह दी है कि अगर बच्चों को फ्रूट जूस या फिर फ्रूट ड्रिंक्स दिए भी जाते हैं तो उसकी मात्रा 2 से 5 साल की उम्र के बच्चों के लिए प्रति दिन 125ml यानी आधा कप होनी चाहिए, जबकि 5 साल से अधिक आयु वाले बच्चों को एक कप यानी प्रति दिन 250 ml के हिसाब से फ्रूट जूस देना चाहिए। राम मनोहर लोहिया अस्पताल में सीनियर पीडिऐट्रिशन डॉ. हेमा गुप्ता मित्तल, जोकि इस सलाहाकर समूह यानी कन्सलटेटिव ग्रुप का भी हिस्सा हैं, उन्होंने कहा, 'बच्चों को बताई गई मात्रा में दिया जाने वाला फ्रूट जूस एकदम फ्रेश होना चाहिए। चाहे फलों का जूस ताजा हो या फिर डिब्बाबंद, इनमें शुगर की मात्रा तो अधिक होती ही है, साथ ही कैलरी भी ज्यादा होती हैं। वहीं फल मांसपेशियों के विकास में मदद करते हैं और डेंटल के लिए भी जरूरी हैं।' बच्चों को चाय-कॉफी कितनी मात्रा में? वहीं ऐसे कैफीनयुक्त ड्रिंक्स पर जारी किए गए आईएपी के दिशानिर्देशों के अनुसार, 5 साल से कम उम्र के बच्चों को कार्बोनेटेड ड्रिंक्स जैसे कि चाय और कॉफी से बिल्कुल दूर रहना चाहि। स्कूल जाने वाले बच्चों और किशोरों की बात करें तो 5 से 9 साल के बच्चों के लिए चाय या कॉफी की मात्रा प्रति दिन आधा कप रहनी चाहिए, जबकि 10 से 18 साल के बच्चों के लिए प्रति दिन 1 कप चाय या कॉफी देनी चाहिए। बशर्ते उन्हें कैफीनयुक्त अन्य कोई चीज न दी जाए। आईएपी ग्रुप ने जंक फूड को JUNCS नाम की टर्म से रिप्लेस करने की भी सलाह दी है ताकि अनहेल्दी फूड्स से संबंधित अन्य चीजों और कॉन्सेप्ट्स को इसमें शामिल किया जा सके। एक्सपर्ट्स के मुताबिक, ऐसा इसलिए किया गया है ताकि अल्ट्रा-प्रोसेस्ड फूड्स, कैफीनयुक्त ड्रिंक्स और शुगर स्वीटन्ड बेवरेजेस को इसमें शामिल किया जा सके। क्या हो सकती हैं दिक्कतें? आईएपी की गाइ़डलाइन कहती है कि इन खाद्य पदार्थों और ड्रिंक्स का सीधा संबंध हाई बॉडी मास इंडेक्स से होता है और बच्चों में हार्ट संबंधी समस्याएं हो सकती हैं। इसके अलावा कैफीनयुक्त ड्रिंक्स पीने से नींद आने में दिक्कत होने लगती है। भारतीय बच्चों में फास्ट फूड और शुगर स्वीटन्ड बेवरेजेस की खपत में वृद्धि को देखते हुए ये दिशानिर्देश काफी महत्वपूर्ण है। भारतीय बच्चों में ऐसी चीजों की खपत ज्यादा इसलिए है क्योंकि ये आसानी से मिल जाती है, अगर पैरंट्स वर्किंग हैं तो भी उस स्थिति में प्रोसेस्ड फूड्स और ड्रिंक्स एक तरह से वरदान का काम करते हैं। इसके अलावा इन्हें आकर्षक पैकेजिंग में परोसा जाता है, जिसकी वजह से बच्चे इनकी ओर अधिक आकर्षित होते हैं। 13 अगस्त को सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वाइरनमेंट यानी सीएसई द्वारा किए गए एक सर्वे के मुताबिक, 9 से 14 साल के 200 बच्चों में से 93 फीसदी ऐसे बच्चे थे जो हफ्ते में एक बार से अधिक पैकेज्ड या प्रोसेस्ड फूड आइटम्स खाते हैं वहीं 68 फीसदी बच्चे ऐसे थे जो इसी टाइम पीरियड में पैकेज्ड शुगर स्वीटन्ड बेवेरेजस का सेवन करते हैं। वहीं 53 फीसदी ऐसे बच्चों का भी आंकड़ा था जो कम से कम दिन में एक बार ये चीजें खाते हैं। एक्सपर्ट्स का मानना है कि इसकी वजह से बच्चों में हाई ब्लड प्रेशर, हार्ट संबंधी परेशानियां, डेंटल हेल्थ इशूज और बिहेवियरल चेंजेस अत्यधिक होने लगे हैं। आईएपी ने भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण यानी FSSAI के एक सुझाव की वकालत करते हुए सुझाव दिया है कि सभी पैक खाद्य पदार्थों की ट्रैफिक लाइट कोडिंग की जाए ताकि जंक फूड्स के खतरे से लड़ा जा सके। इसके अलावा ऐसे उत्पादों के विज्ञापन और विपणन के लिए अलग-अलग दिशानिर्देश विकसित किए जाएं। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण के सीईओ पवन अग्रवाल ने कहा कि इस संबंध में उन्होंने एक प्रपोजल पर प्रोसेस्ड फूड इंडस्ट्री से बात की है। उन्होंने उन उत्पादों के पैकेटों के सामने लाल रंग की कोडिंग प्रदर्शित करने का प्रस्ताव रखा है जिनमें फैट, शुगर या सॉल्ट यानी नमक की अत्यधिक मात्रा है। बकौल पवन अग्रवाल, 'इस इंडस्ट्री के कुछ रिजर्वेशन्स हैं और हम इस बात पर एक आम सहमति बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि इन्हें कैसे लागू किया जाए।


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