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वैरियॉलेशन सिद्धांत की खोज 18वीं शताब्दी में की गई थी। इसी को अपनाते हुए दुनिया के कुछ देशों ने सिर्फ फेसमास्क के आधार पर कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने में सफलता पाई है...
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हम सभी जानते हैं कि जापान, कोरिया और सिंगापुर जैसे देशों ने कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने के बाद बिना वैक्सीन का इंतजार किए उन सभी प्रभावी तरीकों पर काम करना शुरू किया, जो इस वायरस के प्रसार को रोकते हैं। खास बात यह है कि इन तरीकों को अपना तो पूरी दुनिया रही है लेकिन जिस सख्ती से इन तीनों देशों ने काम किया, उसका सुखद परिणाम भी इन्हें देखने को मिला। अब ये देश पूरी दुनिया के लिए मिसाल बने हुए हैं...
यह तकनीक आई सबसे अधिक काम
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-पूरी दुनिया में कोरोना से बचने के लिए मास्क पहनने पर जोर दिया जा रहा है। लेकिन जापान, कोरिया और सिंगापुर जैसे देशों नें मास्क पहनने का नियम जिस तरह मास लेवल पर अपनाया, उसका शानदार परिणाम इन देशों में देखने को मिला।
-इन देशों ने अपने यहां फैलते कोरोना संक्रमण पर तेजी से लगाम लगा दी। एक तरफ जहां भारत जैसे सघन आबादी वाले देशों में मास्क पहनने को लेकर अभी भी लापरवाही बरतते लोग दिख जाएंगे। वहीं, साधन संपन्न और विकसित देशों की श्रेणी में शामिल इन देशों ने सिर्फ वैक्सीन के इंतजार पर अपनी निर्भरता नहीं बनाए रखी।
वैक्सीन जैसा काम करता है छोटा कपड़ा
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-छोटे से कपड़े से तैयार किया गया फेस मास्क यदि सभी लोग पूरी सतर्कता के साथ और सही तरीके से पहनें तो यह वैक्सीन की तरह ही काम करता है। यह हम नहीं कह रहे हैं बल्कि न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में पिछले दिनों प्रकाशित हुई एक रिपोर्ट में हेल्थ सायंटिस्ट्स की तरफ से कहा गया है।
-यह एक इंटरनैशनल रिसर्च जर्नल है और इसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि जब मास लेवल पर सभी लोग फेसमास्क का उपयोग करते हैं तो ऐसे में संक्रमित व्यक्ति के शरीर से कोरोना वायरस की ड्रॉपलेट्स काफी कम मात्रा में वातावरण में आ पाती हैं।
-जब ड्रॉपलेट्स बाहर ही कम मात्रा में आती हैं और आस-पास के अन्य लोगों ने मास्क पहना हुआ होता है तो ये ड्रॉपलेट्स उन लोगों के शरीर में और भी कम मात्रा में प्रवेश कर पाती हैं। इसलिए इन लोगों के शरीर में वायरस लोड कम होता है।
रोग प्रतिरोधक क्षमता को मिलता है फायदा
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-जब किसी व्यक्ति के शरीर में किसी नए वायरस का प्रवेश होता है लेकिन उसके शरीर में इस वायरस का लोड (वायरस की संख्या से समझें) कम होता है तो इस स्थिति में उस व्यक्ति के शरीर की इम्युनिटी को उस वायरस को पहचानने, उसके लिए ऐंटिबॉडीज बनाने और उस वायरस को खत्म करने का पूरा समय मिलता है।
इसलिए बढ़ते हैं ए-सिंप्टोमेटिक मरीज
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-जब किसी व्यक्ति के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी) अपने स्तर पर ही वायरस को नियंत्रित करने और उसे मारने में सक्षम होती है तो इन लोगों के शरीर में उस वायरस के कारण फैलनेवाली बीमारी के लक्षण नजर नहीं आते हैं। इन्हीं लोगों को ए-सिंप्टोमेटिक कहा जाता है।
-जब इन ए-सिंप्टोमेटिक मरीजों के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता वायरस को पूरी तरह मारकर खत्म कर देती है तो ये व्यक्ति खुद-ब-खुद ठीक भी हो जाते हैं। ऐसे में इन्हें पता भी नहीं चल पाता कि ये किसी खतरनाक वायरस के कारण बीमार भी हुए थे!
यह सिद्धांत करता है काम
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-मास्क पहनकर कोरोना वायरस से बचने का तरीका उस सिद्धांत से प्रेरित है, जिसे स्मॉलपॉक्स (छोटी माता) की बीमारी से बचने के लिए 18वीं शताब्दी में अपनाया गया था।इसे वैरियॉलेशन सिद्धांत (Variolation Technique)कहा जाता है।
-उस समय स्मॉलपॉक्स की वैक्सीन नहीं थी तो इस बीमारी के संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए, बीमार व्यक्ति के शरीर से उतरी सूखी और संक्रमित त्वचा को लेकर स्वस्थ व्यक्ति के शरीर पर रगड़ दिया जाता था।
स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुंचाते थे वायरस
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-संक्रमित त्वचा रगड़ने से स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में भी स्मॉलपॉक्स का वायरस प्रवेश कर जाता था। लेकिन वायरस लोड कम होने के कारण उस व्यक्ति के शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता ऐंटिबॉडीज तेजी से बना लेती थी और वायरस को खत्म कर देती थी।
-इस कारण उस व्यक्ति की इम्युनिटी की मेमॉरी में स्मॉलपॉक्स के वायरस की स्कैन कॉपी सेव रहती थी और शरीर को पता होता था कि यदि यह वायरस फिर से अटैक करता है तो इसे मारने के लिए कौन-सी ऐंटिबॉडीज बनानी हैं। इस तरह यह संक्रमण बहुत कम फैलता था।
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