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Wednesday, December 25, 2019

आयरन की गोली से बच्चा काला, कुपोषण के खिलाफ जंग में भ्रांतियां बन रहीं बाधा

संदीप बुन्देला, नई दिल्ली
  1. 2 से 6 साल के 94% भारतीय बच्चों को जरूरत के मुताबिक पर्याप्त पोषण नहीं मिलता है।
  2. कुपोषण के कारण साल 2018 में 5 साल से कम उम्र के 8.82 लाख बच्चों की मौत हो गई।
  3. जन्म लेने वाले 1 हजार बच्चों में से 46 नवजात गांवों में जिंदा नहीं रहते, 5 साल से कम उम्र में यह गिनती 56 है।
डराने वाले इन आंकड़ों के बीच गांव-देहात में तमाम गर्भवती महिलाएं आयरन और फोलिक ऐसिड की गोली इसलिए नहीं खातीं क्योंकि बच्चा काला पैदा होगा, पपीता खाने से उनका गर्भ गिर सकता है, ज्यादा खाने से बच्चा इतना मोटा होगा कि डिलिवरी सिजेरियन से करवानी होगी। ये कुछ ऐसी भ्रांतियां हैं जो गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य पर बुरा असर डाल रही हैं। नतीजतन, तमाम सरकारी योजनाओं और गैर-सरकारी संगठनों के प्रयासों के बावजूद अब भी कई बच्चे हो रहे हैं। कुपोषण पर दिल्ली में लगी फोटो प्रदर्शनी अशिक्षा और गरीबी के चलते भोजन में जरूरी पोषक तत्वों की कमी से बच्चे कुपोषण का शिकार होते हैं। सबसे गंभीर स्थिति SAM (Severe Acute ) बच्चों की है, क्योंकि उनके बचने के आसार सबसे कम होते हैं। देश में यह समस्या कितनी गंभीर है, इसकी बानगी पद्मश्री से सम्मानित सुधारक ओल्वे की हाल में दिल्ली में लगी फोटो प्रदर्शनी में दिखी। इसी प्रदर्शनी में बच्चों का काल बन रहे कुपोषण पर गंभीर चर्चा हुई। योजनाएं हैं लेकिन संसाधन और इच्छाशक्ति की कमी है विकास कार्यों से जुड़े संगठन IPE ग्लोबल लिमिटेड के राघवेश रंजन कहते हैं कि कुपोषण और इसके सबसे वीभत्स रूप सैम को दूर करने के लिए सरकारी योजनाएं तो कई हैं, लेकिन उन्हें अमल में लाने के या तो संसाधन नहीं हैं या फिर इच्छाशक्ति का अभाव है। हर घर में टॉइलट की सरकारी योजना का उदाहरण देते हुए रंजन ने बताया कि खाने से गर्भवती महिलाओं में कब्ज की शिकायत होती है और गांवों में कई बार उन्हें दोपहर में शौच जाना पड़ता है। एसे में जिन घरों में टॉइलट नहीं है, वहां कि महिलाओं ने ये गोलियां खाना छोड़ दिया है। यह दिखाता है कि कुपोषण के खिलाफ लड़ाई सिर्फ महिला स्वास्थ्य या बच्चों के पोषण तक सीमित नहीं है। अन्य विभागों का योगदान भी इसमें जरूरी है। गांवों में खानपान को लेकर जागरुकता की भारी कमी पपीते के बारे में उन्होंने कहा कि पका हुआ पपीता बेहद सुपाच्य और पोषण से भरपूर होता है और यह आयरन की गोली से होने वाली कब्जियत दूर भगाता है। लेकिन गर्भपात के डर से महिलाएं इससे दूर रहती हैं। पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया में न्यूट्रिशन विभाग की प्रमुख डॉ. श्वेता खंडेलवाल ने कहा कि ये बातें दिखाती हैं दिखाती हैं कि गांवों में खानपान पर जागरूकता की कितनी कमी है। गर्भवती महिलाओं का वजन 10-12 किलो बढ़ना आम बात है, लेकिन सिर्फ नॉर्मल डिलिवरी की आशा में वह खाना कम खाती हैं, तो वह खुद तो कमजोर होती ही हैं, गर्भ में पल रहे बच्चे को भी कम पोषण मिलता है। नतीजा बच्चे का विकास बाधित होता है, समय से पहले बच्चे का जन्म हो जाता है या बच्चा बेहद कम वजन वाला पैदा होता है। उन्होंने कहा कि लोगों के बीच यह भी भ्रांति है कि सिर्फ पसलियां दिखने वाला बच्चा ही कुपोषण का शिकार है। कई बार बच्चे का वजन लंबाई के मुताबिक ठीक है, लेकिन अगर चिप्स पापड़ जैसी चीजें ज्यादा खा रहा है तो उसे पर्याप्त पोषण नहीं मिलेगा। सिर्फ बच्चे ही नहीं मां भी न हो कुपोषित, इस बात का रखें ख्याल भारत सरकार में पूर्व हेल्थ सेक्रेटरी और चेतना नाम के संगठन से जुड़ीं डॉ. शैलजा चंद्रा ने कहा कि अस्पताल इतनी दूरी पर हों कि जरूरतमंद बिना कठिनाई के पहुंच सके, पहाड़ी और आदिवासी इलाकों में मोबाइल रिहैब सेंटर (वैन पर अस्पताल) का इंतजाम हो। जनसंख्या नियंत्रण और अधिकतम दो बच्चों पर जोर जरूरी है। लेकिन यह भी देखना होगा कि दोनों बच्चों में पर्याप्त अंतर भी रहे। अभी देखा गया है कि ज्यादातर कुपोषित बच्चों की मांएं कम उम्र में ब्याही गईं और कम उम्र में ही मां बन गईं। इस तरह महिलाएं अनीमिया की शिकार तो हुई हीं, उनमें इतना दूध भी नहीं बन रहा है कि वह बच्चे को पूरा पड़ सके। स्थानीय फल और सब्जियों का सेवन है जरूरी एम्स में विभागाध्यक्ष रह चुके डॉ चंद्रकांत पांडव ने बताया कि बच्चों में पोषण के लिए खिचड़ी के साथ स्थानीय तौर पर उपलब्ध खाने-पीने की चीजों जैसे गाजर,मूली,शकरकंद का इस्तेमाल हो सकता है। जरूरी नहीं कि फलों में सेब ही मिले, अगर स्थानीय स्तर पर अमरूद, शरीफा है तो वह पोषण का अच्छा विकल्प है। महाराष्ट्र में हेल्थ और न्यूट्रिशन से जुड़े डॉ. राज भंडारी ने कहा कि यह विडंबना है कि अमीर तो पोषण के लिए मोटे अनाजों को अपना रहा है, लेकिन उसे उगाने वाला गरीब किसान ही इन अनाजों से दूर जाकर गेहूं और चावल पर निर्भर हो रहा है।


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