2019 में मेडिकल सांइस ने हासिल कीं ये बड़ी उपलब्धियां - Kal Se Aaj Tak News

“समय के साथ”

Breaking

Home Top Ad

Web hosting

Post Top Ad

Join us to kalseaajtaknew.blogspot.com

Saturday, December 28, 2019

2019 में मेडिकल सांइस ने हासिल कीं ये बड़ी उपलब्धियां

बीत रहा साल 2019 कई मायनों में मेडिकल साइंस के लिए उपलब्धियों वाला साल रहा। डायग्नोसिस और ट्रीटमेंट, दोनों क्षेत्रों में ऐसे तमाम काम हुए जिनके कारण मरीजों की ज़िंदगी में आशा की किरण दिखी। इनमें से काफी चीजों के बारे में आप और हम पिछले कई बरसों से सुनते आ रहे हैं। बेशक विज्ञान और मेडिकल के क्षेत्रों में कोई भी तकनीक, पद्धति या उपचार एक दिन या साल की उपलब्धि नहीं होती। पूरी प्रक्रिया में कई साल लग जाते हैं। इस बरस को अलविदा कहते हुए इन्हीं में से कुछ विशेष उपलब्धियों के बारे में जानें: प्रख्यात फ्रांसीसी दार्शनिक वॉल्तेयर ने कहा था, 'चिकित्सा वह कला है जो मरीज का तब तक मनोरंजन करती है, जब तक कुदरत उसे स्वस्थ नहीं कर देती।' 18वीं सदी की इस बात से आज हम बहुत आगे आ चुके हैं। अब डॉक्टर सिर्फ कुदरत के सहारे मरीजों को सेहतमंद करने और रखने की बाट नहीं जोहते। वे इसके लिए तकनीक का सहारा लेते हैं। मॉडर्न मेडिसिन में टेक्नॉलजी का दखल बढ़ता जा रहा है। आज हम उस दौर में आ चुके हैं जहां इंसान और मशीन के बीच का फर्क मिटने को है। --------------------- आर्टिफिशल इंटेलिजेंस की आहट मशीन की होशियारी से भागेगी बीमारी सुधा को डायबीटीज के कारण आंखों के परदे (रेटिना) की समस्या रेटिनोपैथी है। उनके जैसे हजारों मरीजों के पर्दों के फोटो का ऐनालिसिस कर एक AI मशीन बता दे रही है कि सुधा को रेटिनोपैथी कितनी है और उसके इलाज के लिए आगे क्या किया जाना चाहिए। आर्टिफिशल इंटेलिजेंस ऐसी और भी कई बीमारियों का डायग्नोसिस व इलाज में एल्गोरिद्म के आधार पर सक्षम सेवाएं दे रही है। डॉक्टर भी इंसान है, मरीज भी। अब तक इंसान इंसान की बीमारी को समझकर उसका इलाज करता रहा, जिसमें मशीनों ने सिर्फ सहयोगी की भूमिका निभाई है। लेकिन जैसे-जैसे आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (AI) का विकास होता जाएगा, मशीनें बीमारियों को स्वतंत्र रूप से पहचानने और इलाज करने का काम करने लगेंगी। उन्हें इन कामों को करने के लिए किसी मेडिकल पढ़े इंसान यानी डॉक्टर के सहयोग की जरूरत नहीं होगी। वर्तमान: बीमारियों का डायग्नोसिस अभी तक डॉक्टर करते रहे हैं और इलाज भी वे ही तय करते हैं। इन दोनों कामों में वे अपनी मेडिकल-एजुकेशन और अनुभव का इस्तेमाल करते हैं। भविष्य: आर्टिफिशल इंटेलिजेंस वाली मशीनों को बीमारियों के ढेर सारे आंकड़ों से सीखना है। बीमारियों को पकड़ने के लिए उनके पैटर्न पहचानने हैं और फिर इलाज तय करना है। ढेरों कामों में वे धीरे-धीरे मानव-डॉक्टरों के बराबर आने लगी हैं और ढेरों काम उनसे बेहतर भी करने लगी हैं। फायदे: मेडिकल के तमाम क्षेत्रों में लगभग डॉक्टरों की तरह ही डायग्नोज और ट्रीट कर सकने की क्षमता। धीरे-धीरे यह और बढ़ेगी। फिर मनुष्य की जगह ये मशीनें काम करने लगेंगी। कमियां: प्रैक्टिकल इस्तेमाल में अभी वक्त लगेगा। कई बीमारियों में AI को लेकर प्रयोग चल रहे हैं। हालांकि सवाल यह है कि मशीनें यह करेंगी तो डॉक्टर-मरीज के बीच के इंसानी रिश्तों का क्या होगा? क्या मशीन वह ह्यूमन टच इलाज के दौरान दे पाएगी जो इलाज के समय मरीज को मनोवैज्ञानिक लाभ पहुंचाता है? भारत में स्थिति: कई मेडिकल इंस्टिट्यूट्स में आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के साथ काम चल रहा है और नतीजे उत्साहवर्धक रहे हैं। -------------------------------- बीमार सांसों के लिए स्मार्ट तरीके से ले सकेंगे दवा! अब्दुल दमा के मरीज हैं, लेकिन इनहेलर नहीं लेना चाहते। उन्हें गोलियां खाकर मर्ज को कंट्रोल करना ज्यादा सही लगता है जबकि अगर इस्तेमाल ठीक से किया जाए तो इनहेलर दमे के 90 प्रतिशत मरीजों में कारगर हैं। अब्दुल जैसे ज्यादातर मरीजों की समस्या यह है कि वे इनहेलरों के इस्तेमाल का सही तरीका जानते ही नहीं। यही वजह है कि उन्हें मुंह से ली जाने वाली गोलियां खाना ज्यादा आसान लगता है। अब दिक्कत यह है कि अब्दुल अगर मुंह से ली जाने वाली दवाइयां लेते हैं तो उन्हें दवा की ज्यादा मात्रा लेनी पड़ेगी। ऐसे में उन्हें दवाओं के साइड इफेक्ट होने की आशंका भी ज्यादा होगी। दूसरी ओर, इनहेलर का इस्तेमाल करने से दवा सीधे सांसों के रास्ते फेफड़ों में पहुंचेगी और इस तरह से उसके साइड इफेक्ट बहुत कम रह जाएंगे। अच्छी बात यह है कि अब अब्दुल के पास ब्लूटूथ-एनेबल्ड स्मार्ट इनहेलर का विकल्प मौजूद है। वह डॉक्टर से इसका इस्तेमाल सीखें और फेफड़ों की समस्या के लिए गोलियां न खाएं। कब और कितने बजे इनहेलर से दवा लेनी है, कितनी लेनी है और क्या ठीक से पिछली डोज ली गईं - ये सारी जानकारियां उनके स्मार्टफोन में पहुंच जाएगी। इस तरह से अब्दुल दमा बेहतर तरीके से कंट्रोल करने में कामयाब रहेंगे। वर्तमान: ज्यादातर स्थितियों में डॉक्टर और मरीज ट्रडिशनल इनहेलरों का इस्तेमाल करते हैं। भविष्य: स्मार्ट इनहेलरों का इस्तेमाल बढ़ेगा। स्मार्टफोन की मदद से दवा की सही डोज सही समय पर और सही तरीके से मरीज को मिलेगी। फायदे: दवा इनहेल करने में होगी आसानी। बीमारी में फायदा ज्यादा होगा। कमियां: महंगे हैं और ज्यादातर लोगों की पहुंच से दूर। भारत में स्थिति: बहुत जल्दी बाजार में उपलब्ध होंगे। ------------------------------- फार्माकोजेनोमिक्स का फंडाजानेंगे जेनेटिक्स, फिर देंगे दवाई घटना पुरानी, लेकिन सच्ची है। दो मरीज किसी डॉक्टर को संग दिखाने पहुंचे। पहले का डायग्नोसिस डिप्रेशन था, दूसरा बढ़े ब्लड प्रेशर से परेशान था। दोनों ने डॉक्टर से बातचीत के दौरान दो सवाल बार-बार पूछे: क्या आपकी दवा से मेरा डिप्रेशन/ बीपी निश्चित रूप से कंट्रोल हो ही जाएगा? इन दवाओं के साइड इफेक्ट तो नहीं होंगे? डॉक्टर दोनों ही सवालों के साफ जवाब नहीं दे सके। न तो वह यह पक्के तौर पर कह सकते थे कि दवा का फायदा मिलेगा ही और न इस बात पर अड़ सके कि दवा कभी-कोई नुकसान नहीं करेगी। इस मामले में फार्माकोजेनोमिक्स हमारी मदद कर रही है। दरअसल, हर बीमार का जिस्म दूसरे बीमार से अलग होता है इसलिए इलाज करते समय इस बात को जानना जरूरी हो जाता है कि हर शरीर पर दवा कितना अच्छा और कितना बुरा असर दिखाएगी। मरीजों में दिखने वाली यह भिन्नता दरअसल उनके जेनेटिक वैरिएशन के कारण है। अलग-अलग जीनों की वजह से शरीर पर दवाओं का असर अलग-अलग दिख सकता है। जेनेटिक वैरिएशन या अलगाव के आधार पर हर मरीज को अलग-अलग दवा दे पाना, ताकि उसे फायदा ज्यादा-से-ज्यादा मिले और साइड इफेक्ट न हो, फार्माकोजेनोमिक्स कहलाता है। डायबीटीज में शुगर-कंट्रोल हो या गठिया जैसे मर्जों में दर्द से निजात, हर मरीज को दवाओं से एक-जैसा फायदा नहीं होता। किसी को किसी दवा से लाभ मिलता है तो किसी को उसी दवा से साइड इफेक्ट हो जाता है। सच तो यह है कि जल्द ही हम जेनेटिक टेस्टिंग के बाद अलग-अलग दवाएं, अलग-अलग मरीजों को देंगे। दरअसल इसकी एक बड़ी वजह भी है। हर शख्स का 99.5 फीसदी जेनेटिक मेकअप एक जैसा होता है, फर्क सिर्फ 0.5 फीसदी का ही है। बस इतने से फर्क से ही अलग-अलग लोगों को अलग-अलग तरह की बीमारियां हो जाती हैं। ऐसे में उन बीमारियों के लिए दवाओं से फायदा-नुकसान भी अलग-अलग मिलता है। उदाहरण के लिए HIV और इसके इलाज में इस्तेमाल होने वाली एक दवा एबैकावीर (Abacavir) है। इस दवा को लेने से कुछ मरीजों में थकान, त्वचा पर चक्कते और दस्त जैसे साइड इफेक्ट्स दिखने लगतेे हैं। दरअसल, ऐसी परेशानी मरीज में मौदूद एक खास तरह की जीन की वजह से होती है। इस समस्या से बचने के लिए डॉक्टरों ने एबैकावीर शुरू करने से पहले मरीजों की जेनेटिक स्क्रीनिंग शुरू कर दी। जिन मरीजों में ऐसे जीन मिले, उन्हें यह दवा नहीं दी गई और जिनमें ये जीन नहीं मिले, उन्हें ही यह दवा दी गई। परिणाम हुआ कि HIV मरीजों पर इसकी वजह से होने वाले साइड इफेक्ट्स दिखने बंद हो गए। वर्तमान: ज्यादातर स्थितियों में डॉक्टर यह बता पाने की स्थिति में नहीं होते कि अमुक दवा फायदा करेगी ही या नहीं या फिर कोई साइड इफेक्ट होगा या नहीं। भविष्य: फार्माकोजेनोमिक्स टेस्टिंग से ढेरों दवाओं के बारे में ये जानकारियां मरीज के लिए पहले से मिल जाया करेंगी। अब भी ऐसा हो रहा है, लेकिन बहुत कम। फायदे: हर मरीज के जेनेटिक मेकअप के मुताबिक उसका इलाज ताकि बीमारी में फायदा अधिकतम हो और साइड एफेक्ट कम-से-कम। कमियां: अभी दाम ज्यादा है। ज्यादातर मामलों में डॉक्टर अभी इनका इस्तेमाल नहीं कर रहे। वक्त भी कुछ दिनों से हफ्तों तक लग जाता है। भारत में स्थिति: कुछ ही दवाओं में इस्तेमाल। हालांकि इस्तेमाल बढ़ रहा है। --------------------- जीन की एडिटिंग से रहेंगे हेल्दी क्रिस्पर यानी कलस्टर्ड रेग्युलर्ली इंटरस्पेस्ड शॉर्ट पैलिन्ड्रोमिक रिपीट्स बड़े काम की चीज है। जीनों में मौजूद गड़बड़ियां तमाम बीमारियों को जन्म देती हैं और उनके इलाज में रुकावट भी पैदा कर सकती हैं। क्रिस्पर से काट-छांट करके कैंसरों और एचआईवी जैसी बीमारियों से सफलतापूर्वक मुकाबला किया जा सकता है। यह तकनीक इतनी सफल और उन्नत साबित हुई है कि चीन में इसके इस्तेमाल से पिछले साल डिजायनर मानव-बच्चे पैदा किए गए। क्रिस्पर के इस्तेमाल से मनचाहे जीनों वाले बच्चों को पैदा कर सकना ईश्वर होने जैसा है और इसी कारण यह तकनीकी विवादों के घेरे में भी रही है। क्रिस्पर तकनीक मानव-कोशिकाओं के भीतर जीनों को मॉडिफाई करते समय वायरसों का इस्तेमाल करती है। आगे आने वाले समय में ज्यों-ज्यों इस तकनीकी का और विकास होगा, जीनों की एडिटिंग का काम भी बढ़ता जाएगा। वर्तमान: एचआईवी, कैंसर व दूसरी बीमारियों में जीन के स्तर पर छेड़छाड़ नहीं की जाती भविष्य: जीनों की एडिटिंग से बीमारियों से लड़ना, रोगियों को एकदम दूसरे स्तर का इलाज मुहैया करा देगा फायदा: पहले से कहीं ज्यादा कारगर इलाज कमियां: अगर एडिटिंग में गलती हुई तो कोई नई बीमारी भी जन्म ले सकती है। इसे, अभी लैब से आम लोगों तक पहुंचाने का काम चल रहा है। भारत में स्थिति: अभी वक्त लगेगा -------------------- आरएनए थेरपी क्या है भला! जीन थेरपी में बीमारी पैदा करने या उनमें योगदान देने वाले जीनों की काट-छांट या मरम्मत की जा सकती है। इस बारे में क्रिस्पर चर्चा के दौरान हम विस्तार से बात कर चुके हैं। जीन डीएनए से बने होते हैं और जीनों में काट-छांट दरअसल डीएनए में काट-छांट ही है। शरीर की हर कोशिका का डीएनए इस तरह काम करता है: पहले वह अपना आरएनए बनाता है और फिर यह आरएनए प्रोटीन बनाता है। इस आरएनए के साथ तरह-तरह के प्रयोग करके भी वैज्ञानिक ढेरों बीमारियों के इलाज को नई दिशा देने में लगे हुए हैं। जेनेटिक बीमारियां, कैंसर और तरह-तरह की ऑटोइम्यून बीमारियों में आरएनए में किए गए बदलाव फायदेमंद साबित हो सकते हैं। वर्तमान: डीएनए एडिटिंग की ही तरह आरएनए में बदलाव करना अभी आम लोगों के इलाज से दूर है, लेकिन धीरे-धीरे हम उस दिशा में बढ़ते जा रहे हैं। भविष्य: जीनों की ही तरह आरएनए की एडिटिंग के द्वारा बीमारियों से लड़ना मरीजों को एकदम दूसरे स्तर का इलाज मुहैया करा देगा फायदा: पहले से कहीं ज्यादा कारगर इलाज कमी: यदि एडिटिंग में गलती हुई तो कोई नई बीमारी भी जन्म ले सकती है। भारत में स्थिति: अभी वक्त लगेगा --------------------- बिना चीरफाड़ के होगी दिल की सर्जरी सीमा के हार्ट के वॉल्व में समस्या थी जिसके लिए उनकी ओपन हार्ट सर्जरी हुई। उनके जैसे मरीजों को दिल की बीमारियों के लिए इस तरह के ऑपरेशनों को झेलना पड़ता है। लेकिन जैसे-जैसे सर्जरी की तकनीक विकसित होती जा रही है, डॉक्टरों को जल्द सीने की हड्डियों-मांसपेशियों को काटकर हृदय तक पहुंचने की जरूरत नहीं पड़ेगी। त्वचा के ऊपर से ही कैथेटर हार्ट के भीतर पहुंचाकर वॉल्वों का रिपेयर और रिप्लेसमेंट किया जाने लगेगा। एओर्टिक वॉल्व में पहले ही सफल हो चुकी यह तकनीक अब दूसरे हार्ट-वॉल्वों माइट्रल व ट्रायकस्पिड में भी कारगर तरीके से इस्तेमाल होने लगी है। ऐसे में बहुत सारे मरीज छाती के बड़े ऑपरेशनों से बच सकेंगे और आसानी व बिना किसी जटिलता के हार्ट-वॉल्व से जुड़ी बीमारियों से निजात पा लेंगे। वर्तमान: हार्ट-वॉल्वों की सर्जरी अभी पारम्परिक ढंग से चीरा लगाकर की जाती है। भविष्य: इस काम को आगे बिना चीर-फाड़ के किया जा सकेगा। फायदे: मरीज जल्दी स्वस्थ होकर घर जा सकेंगे, उन्हें अस्पतालों में कम रुकना पड़ेगा। जीवन की गुणवत्ता बेहतर होगी। कमियां: अभी बहुत कम मरीज ही और वह उच्च संस्थानों में लाभान्वित हो रहे हैं। भारत में स्थिति: चंद सरकारी व प्राइवेट मेडिकल संस्थानों में उपलब्ध। ---------------------- इम्यूनोथेरपी का इजाफा : कैंसर में शरीर के सैनिकों के साथ मिलकर लड़ेंगी दवाएं हमारा जिस्म कैंसर से बेहतर कैसे लड़े, यह जानने में विज्ञान लगा हुआ है। कैंसर बनाम शरीर की इस जंग में शरीर के सैनिक (इम्यूनिटी सिस्टम) को और मजबूत कर कैंसर का इलाज बेहतर किया जा सकता है। कई दवाओं (कीमोथेरेपी) से कैंसर का इलाज किया जाता है, यह हम जानते हैं, लेकिन बहुत-से लोग यह नहीं जानते कि किसी कैंसर के पनपने पर मरीज का इम्यून सिस्टम भी उस कैंसर से लड़ता है। ऐसे में कैंसर के इलाज के समय शरीर की लड़ाकू कोशिकाओं और प्रोटीनों की मदद भी ली जा रही है। वैज्ञानिक इन लड़ाकू प्रोटीनों को लैब में बनाते हैं जिन्हें मोनोक्लोनल एंटी-बॉडी कहा जाता है। कई बार कैंसर कोशिकाएं शरीर की इन लड़ाकू कोशिकाओं के काम पर 'ब्रेक' लगा देती हैं। बाहर से दवाएं देकर डॉक्टर इन ब्रेकों को हटा देते हैं जिससे ये लड़ाकू इम्यून-कोशिकाएं फिर से कैंसर कोशिकाओं को मारने लगती हैं। वर्तमान: अब तक कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, रेडियोथेरपी या सर्जरी का इस्तेमाल होता रहा है। ये तीनों ही विधियां डायरेक्ट हैं और सीधे कैंसर को नष्ट करती हैं। भविष्य: इम्यूनोथेरपी सीधे न काम करके मरीज के इम्यून सिस्टम को ही कैंसर से लड़वाती है। इस तरह से शरीर के इम्यून सिस्टम के सैनिक ही कैंसर कोशिकाओं को मारने का काम करते हैं। फायदे: कीमोथेरेपी वाले साइड इफेक्ट्स से मुक्ति। कीमोथेरपी तभी तक काम करती है जब तक दवा शरीर में रहती है, जबकि इम्यूनोथेरपी के बाद इम्यून सिस्टम की कोशिकाओं में कैंसर कोशिकाओं के प्रति याददाश्त यानी मेमरी विकसित हो जाती है। इससे लंबे समय तक कैंसर से बचाव शरीर को हासिल हो जाता है। कमियां: कीमोथेरपी अपेक्षाकृत जल्दी काम करती है, इम्यूनोथेरपी में थोड़ा ज्यादा वक्त लगता है। फिर इम्यूनोथेरपी के अपने भी कुछ साइड इफेक्ट्स हो सकते हैं। ये नई दवाएं काफी महंगी हैं और ज्यादातर लोग अभी इन्हें नहीं ले सकते। भारत में स्थिति: ल्यूकेमिया, लिम्फोमा व अन्य दूसरे कैंसरों में इस्तेमाल शुरू, लेकिन पर अभी ज्यादातर की पहुंच से दूर। ------------------- थ्री-डी प्रिंटिंग: छापेंगे गोलियां और अंग थ्री-डी प्रिंटिंग का इस्तेमाल दुनियाभर में अनेक क्षेत्रों में हो रहा है। मेडिकल साइंस में भी तरह-तरह से इस तकनीकी का इस्तेमाल लगातार बढ़ रहा है। बाहरी अंगों की प्रॉस्थेसिस हों या हड्डियों के इम्प्लांट, हार्ट की धमनियों में पड़ने वाले स्टेंट हों या फिर खाई जाने वाली दवाएं या फिर जले हुए मरीजों की नष्ट त्वचा, सभी कुछ प्रिंट करके तैयार किया जा सकेगा। यहां तक कि मानव-अंगों, जिनकी कमी से हर साल कितने ही मरीजों की मृत्यु हो जाती है, उन्हें भी इस टेक्नॉलजी से तैयार किया जा सकता है। खून ले जानी वाली धमनियां, समूची ओवरी (अंडाशय) या फिर पैन्क्रियाज (अग्न्याशय) जैसे सभी अंग इस अनूठी तकनीक के बनेंगे। इसी के चलते थ्री-डी प्रिंटिंग भविष्य की बड़ी उम्मीद है। कस्टमाइज्ड तरीके से हर मरीज के लिए उसकी जरूरत के अनुसार इस विधि के इस्तेमाल से ढेरों बीमारियों में अभूतपूर्व फायदे मिलने वाले हैं। वर्तमान: गोलियां और दूसरी दवाएं फैक्ट्री में बनती हैं। अंग किसी अंगदाता (डोनर) से मिलते हैं। भविष्य: ऊतकों, अंगों और कई दवाओं का आसानी से थ्री-डी-प्रिंट कर लिया जाएगा। फायदे: अंगों और दवाओं को इस तकनीक से बना लेने से हमें इनकी कमी से नहीं जूझना पड़ेगा। कमी: व्यावहारिक इस्तेमाल में अभी समय। भारत में स्थिति: अभी वक्त लगेगा। ---------------- बढ़ती जाएगी आबादी सर्जन रोबॉटों की! रोबॉटिक सर्जरी का अनेक क्षेत्रों में इस्तेमाल किया जा रहा है। इसकी पूरी कोशिश हो रही है कि सर्जरी में समय कम लगे और शरीर में कम-से-कम काट-छांट करनी पड़े। रीढ़ से लेकर महीन धमनियों तक रोबॉट शरीर के हर हिस्से की सर्जरी के लिए मुफीद साबित हो रहे हैं। मिनिमली इनवेसिव रोबॉटिक सर्जरी का लक्ष्य ही है कि ऑपरेशन के वक्त दिक्कत कम-से-कम हो, मरीज जल्द-से-जल्द अस्पतालों से डिस्चार्ज होकर घर जाएं और सामान्य जीवन जीने लगें। साथ ही उन्हें दर्द से भी निजात मिले। वर्तमान: सर्जन ज्यादातर ऑपरेशन खुद हाथों या मशीनों से करते हैं जिसमें स्टाफ उनका सहयोग करता है। भविष्य: सर्जन के आदेश के अनुसार ऑपरेशन रोबॉट करेंगे। फायदे: ऑपरेशन ज्यादा कारगर होंगे और निबटेंगे भी जल्द। जटिलताएं भी कम होंगी। कमियां: अभी दाम ज्यादा है। ज्यादातर सर्जन इनका अभी इस्तेमाल नहीं कर रहे। भारत में स्थिति: कुछ बड़े मेडिकल इंस्टिट्यूट्स में काम चल रहा है। धीरे-धीरे सबकी पहुंच में आने लगेगा। रोबोट ने किया स्पाइन का ऑपरेशन एम्स, दिल्ली ने पहली बार अमेरिकी रोबोट से स्पाइन का ऑपरेशन किया। खास बात यह है कि दुनियाभर में ऐसी तकनीक चंद अस्पतालों में ही मौजूद है। दरसअल, जिस महिला का यह ऑपरेशन किया गया वह पिछले 4 साल से कमर दर्द से परेशान थी। उसकी स्पाइन की एल-5 हड्डी खिसक गई थी। ----------------------- पकड़ेंगे स्ट्रोक को नए स्ट्रोक-वायजर से!ब्रेन से जुड़ी बीमारियों में स्ट्रोक के शिकार लोगों की संख्या काफी ज्यादा है। मोटे तौर पर यह दो तरह से हो सकते हैं: अगर दिमाग में खून ले जाने वाली किसी धमनी में रुकावट आ जाए या फिर कोई धमनी फट जाए और उससे खून रिसने लगे। इन स्ट्रोकों में दिमाग का जो हिस्सा क्षतिग्रस्त होता है, उसी के लक्षण रोगी में पैदा होने लगते हैं। यानी अगर हाथ की मांसपेशियों को कंट्रोल करने वाले हिस्से में स्ट्रोक हुआ तो हाथ नहीं उठेगा और अगर विजन को कंट्रोल करने वाले हिस्से में स्ट्रोक का असर आया तो मरीज देख नहीं पाएगा। स्ट्रोक-वायजर के इस्तेमाल से मस्तिष्क की बड़ी धमनियों में हुई रुकावटों को आसानी से ठीक-ठीक पहचाना जा सकेगा। यह काम डॉक्टर इमरजेंसी में फौरन कर सकेंगे। माथे पर इस यंत्र को पहनकर स्ट्रोक को मरीजों को फौरन पहचाना जा सकेगा। दरअसल, इसके द्वारा रोगी के दिमाग की ओर रेडियो-तरंगें भेजी जाती हैं और उनके लौटने पर होने वाले बदलावों को समझा जाता है। इसी बदलाव के आधार पर स्ट्रोक और उसकी गम्भीरता आंकी जाती है। स्ट्रोक के मरीज जब इमरजेंसी में पहुंचते हैं तो कई बार उनके मर्ज को ठीक से समझने और इलाज मिलने में देर हो जाती है। स्ट्रोक-वायजर इस देरी को कम करेगा और मरीजों को इलाज जल्द मिल पाएगा वर्तमान: स्ट्रोक की ज्यादातर आशंका में डॉक्टर सीटीस्कैन या एमआरआई कराते हैं। भविष्य: इस तकनीक से इमरजेंसी में स्ट्रोक को पहचाना जा सकेगा फायदे: डायग्नोसिस में वक्त कम लगेगा जिससे इलाज जल्दी मिल सकेगा कमी: अभी व्यावहारिक प्रयोग में समय लगेगा भारत में स्थिति: अभी उपलब्ध नहीं इन नई चिकित्सा-पद्धतियों और तकनीकों के साथ अभी बहुत सारा काम दुनिया-भर में जारी है। आम लोगों के इस्तेमाल के लिए इन्हें स्थापित होने में अभी समय लगेगा। यह भी आशंका है कि इनके प्रयोग के साथ कुछ नई समस्याएं उठें, कुछ नई चिंताएं पैदा हों, लेकिन इंसान प्रगति के रास्ते पर इसी तरह बढ़ते-गिरते-बढ़ते आगे चला है। हम सभी को यह उम्मीद रखनी होगी कि हर चुनौती से मानव आखिरकार पार पा ही लेगा। नए उजालों से पुराने अंधेरे मिटेंगे, नए अंधेरे अगर आए तो उनके लिए फिर नए उजाले दमकाए जाएंगे।


from Health Tips in Hindi , natural health tips in hindi, Fitness tips, health tips for women - डेली हेल्थ टिप्स, हेल्थ टिप्स फॉर वीमेन | Navbharat Times https://ift.tt/2Q4bK5K
via IFTTT

No comments:

Post a Comment

Post Bottom Ad

Web hosting

Pages